...

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सफ़रनामा
मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।। (2)

पूछी नहीं मैनें खैरियत,
पर हाल अपना वो सुना गए।
कुछ भीड़ का हाथ थाम चले,
कुछ भीड़ से भाग खड़े हुए।।

मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।।

मंज़िल यहाँ सबकी अलग थी
ख्वाबों के सवालों मे उलझी।
जिन्दगी यहाँ लगभग नई थी।
राहों मे मुश्किलें बड़ी थी,
पर मज़िल मानों सामने खड़ी थी।।

मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।।

कुछ ख़्वाब देखे इन आखों ने,
कुछ मुकम्मल इन राहों ने किए।
कुछ साथ खड़े कुछ बिछड गए,
गम को खुशी मे ये बदल गए।
धुन्ड रहे हम तम्हें बरसों से,
पर मुसाफ़िर ही हम बने रहे।।

मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।।

आरज़ू ये नहीं की तुम मिल जाओ,
अब बस ये सफ़र आखिरी हो।
निकलू मै उस गली से,
जँहा खड़ा मेरा हमसफ़र आखिरी हो।
बैठ कर उसी चौराहे पर,
तेरे संग हम गुफ्तगू करेंगें।
अब चाहत नहीं तुझे मुसाफ़िर बनाने कि,
वहाँ बैठ अब सिर्फ़ हम अपने लम्हे बुनेगें।।

मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।।

राह में बाधाएं निश्चित मिलीं,
अवरोध मिटाते में यूं ही चली।
ये कोशिशों का सफ़र नया है,
यहाँ भटकी मै पर खोई नहीं।।

मै निकली हूं उस सफ़र पर
जँहा मुसाफ़िर मुझे ढेरों मिले।।

- @Parul ( A soul Free Poet )
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