...

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सफर
मेरे सफर की मंजिल थी तुम
हम तो चले जा रहे थे
एक अनजान एक दिशाहीन
सफर पे जिसका कोई अंत ना था
सफर मैं कभी सीधा जाता
कभी दूसरों के पीछे जाता
कभी अनजान रास्ते ही निकल जाता
सफर के किसी मोड़ पर रुक जाता
किसी मंजिल के ख्याब मैं
किसी राह मैं
तुम मिलीं
क्या पता था
मेरे सफर की मंजिल थी तुम
अब सफर जैसे खत्म ही हो गया
साथ थे अब सफर मैं
सफर भी क्या चीज है
जिसकी कोई मंजिल नहीं होती
कई मोड़ होते किस मोड़ पर किसे मंजिल मिल जाए पता नहीं होता
क्यों आया वो मोड़
जिस पर उसे अपनी मंजिल मिल गई
और मैं अपनी मंजिल पे ही अकेला पढ़ गया
सफर कभी रुकता नहीं
सिर्फ थमता है
कभी अच्छे पल के लिए
कभी बुरे






© Abhishek mishra