...

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poem
में भी शर्मसार हूं गुनाह पर अपने
कभी तु भी तो नादिम ओ पशेमान हो

ज़रूरी तो नहीं के हर बार खतावार में ही ठहरूं
कभी तुम भी तो तलाशी लॉ एबों की अपने

ये मेरा जर्फ है के तुम अब भी हिस्सा ए महफिल हो
वरना कम जर्फी तो हिजरत करा देती है लोगों को

ये मेरे इश्क की आरज़ू थी वरना
कब से हम तेरे क़ातिल ठहरा दिए होते

और मेरी हिजरत यूं ही नहीं बे माअना
तेरे...