...

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ग़ज़ल
हमारे साथ में है एक रहबर ख़ैरियत से
मगर फिर भी नहीं है अपना लश्कर ख़ैरियत से

लिखा मैंने उसे जो ख़त सरासर ख़ैरियत से
दुआ है बस पहुँच जाए कबूतर ख़ैरियत से

ये बाक़ी दिन महीने भी गुज़र जायेंगे यूँ ही
मगर या रब गुज़र जाए दिसंबर ख़ैरियत से

दुआएँ हैं तुम्हारी ठीक हूँ पर ये बताओ
यहाँ कैसे हुआ आना बिरादर , ख़ैरियत से

तुम्हारी आँख इक क़तरा नहीं रखती सही से
हमारी आँख में है इक समंदर ख़ैरियत से

मैं उसकी बज़्म में आया तो हूँ पर डर रहा हूँ
कहीं वो पूछ ही लें पास आकर ख़ैरियत से

शाबान नाज़िर -
© SN