...

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दिल की पुकार
मिले थे वो राह में,
दिखाकर अपनी इक अदा,
अनजान गलियों में,
न जाने वो कहां खो गये।

कहता है अब जमाना,
क्यों तुमने उन्हें न था पहचाना,
और क्योंकर न किया,
उसे ढूंढने का प्रयत्न,
कैसे बतलाता,
व्यर्थ हुए,
मेरे ढ़ूंढ़ने के हर यत्न,
क्योंकि हमें नहीं था मालूम,
कहां है उनका आशियाना।

नादान नैना मेरे,
हैं उनके दरस के तलबगार।
अब ज़ेहन में बस यही है एक यादगार,
मिले थे वो राह में हमें,
दिखाकर अपनी इक अदा,
अनजान गलियों में,
न जाने वो कहां खो गये।

मुसीबतों में बन मसीहा,
करते रहे वो परोपकार,
आंख मिचौनी के खेल में,
छुप छुपकर वो,
हमेशा ही हमें खिझाते रहे।

थक हार कर अब जानम,
ये नादान दिल है तड़प रहा।
कहां हो तुम,
आ जाओ सनम,
चीख चीख कर यह दिल है कह रहा।

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© mere alfaaz