...

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तलब से हारा
कितनी ही बार
फैसला लिया,
कसम भी खाई कि
अब चाहें दिल
माने या ना माने,
इस दिमाग की
ही सुुनुंगा ....
और
पूरी तरह से
आज ही
सिगरेट छोड़ दूंगा.

कई बार तो लगा भी
कि,संकल्प मेरा
कामयाब हो रहा है
किसी विकल्प की
अब,आवश्यकता
ही कहाँ है....
पर ,
फिर वही निकला
सिफर नतीजा..
जब इक दोस्त ने
मेरे ही सामने
जलाकर,सिगरेट का
एक लम्बा सा
कश खींचा ....

तलब के आगे फिर से
हुआ हौसला पस्त
खाई थी कसम जो
हुई विस्मृत
कमजोर इरादे थे मेरे,
संकल्प हुआ
फिर से ध्वस्त.

मन घबराया
विचलित हुआ,
अपराध बोध
पालकर दिल में,
जब मैंने कश लिया...
चक्कर से आए थे मुझे
लगता था गिर जाऊंगा...
पर गिर तो
पहले ही चुका था मैं,
क्या खाक....
अब बच पाऊँगा.

हाँ, ऐसे ही मैंने
कई बार कसमें खाई ...
ऐसे ही हर बार
प्रण लेकर तोड़ता गया...
बहुत लज्जित हूँ
मगर क्या करूँ
तलब के आगे हारता रहा ,
गिरकर उठ पाया नहीं
बस गिरता गया....
गिरता ही गया...

© बदनाम कलमकार