...

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लम्हे इंतज़ार के
इक-इक पल सदियों से लगें, लम्हे इंतज़ार के,
तुम दूर क्या गए,संग लें गए ये मौसम बहार के।

तुमसे से ही तो थी, मेरी ज़िन्दगी में सारी रौनकें,
दिल की फज़ा में गूँजते है अब पंछी सोगवार के।

दुश्वारियाँ इतनी कि, साँसें लेना भी बोझ लगता है,
लुभाता नहीं ये चाँद और ये मौसम ख़ुश-गवार के।

तुम्हें क्या पता कैसे सँभालते है,ख़ुद को हम यहाँ,
रह-रहकर गिरते हैं आँखों से ये अब्र-ए-बहार के।

अब लौट भी आओ, ये दिल करें पुकार "खराज"
कहीं मौत न आ जाए, जी रहे तुम बिन शरार के।

© पुखराज