मैं लिखती हूं।।
अक्सर सोचती हूं मैं लिखना,
मगर लिखूं क्या मन में ये सवाल रहता हैं।
शायद मैं लिखना चाहती हूं दर्द,
मगर लिख देती हूं जिंदगी।
मैं लिखना तो चाहती हूं अस्थिरता,
मगर फिर लिखती हूं मन।
मैं तो लिखना चाहती हूं चुप्पी,
मगर लिख देती हूं समाज।
वो समाज जो हर गुनाह को,
देखकर भी चुप हैं।
मैं लिखना तो चाहती हूं अंधेरा,
पर मैं लिख देती हूं...
मगर लिखूं क्या मन में ये सवाल रहता हैं।
शायद मैं लिखना चाहती हूं दर्द,
मगर लिख देती हूं जिंदगी।
मैं लिखना तो चाहती हूं अस्थिरता,
मगर फिर लिखती हूं मन।
मैं तो लिखना चाहती हूं चुप्पी,
मगर लिख देती हूं समाज।
वो समाज जो हर गुनाह को,
देखकर भी चुप हैं।
मैं लिखना तो चाहती हूं अंधेरा,
पर मैं लिख देती हूं...