मन ही मन
क्या क्या सोचा ,क्या क्या जाना
एक सिहर , पीर का है ये मन
जब ज़ख्म लगे तब तब रोए
निश्छल , व्याकुल , भंवराए मन
ये सात समंदर छू जाए,
नभ सी ऊंचाई पा जाए
गहराई में भी मार हिलोरें
अपने मन पे जब आ जाए
क्रोध, दया, हंसना, रोना
इसके ही सब हैं पात्र बने
भोर, सांझ , इक इक पहर
मन ही मन की आवाज़ बने
एक सिहर , पीर का है ये मन
जब ज़ख्म लगे तब तब रोए
निश्छल , व्याकुल , भंवराए मन
ये सात समंदर छू जाए,
नभ सी ऊंचाई पा जाए
गहराई में भी मार हिलोरें
अपने मन पे जब आ जाए
क्रोध, दया, हंसना, रोना
इसके ही सब हैं पात्र बने
भोर, सांझ , इक इक पहर
मन ही मन की आवाज़ बने