मेरी तरह
By: *Shoaib Khan*
में भी शर्मसार हूं गुनाह पर अपने
कभी तु भी तो नादिम ओ पशेमान हो मेरी तरह
ये मेरा जर्फ है के तुम अब भी हिस्सा ए महफिल हो
वरना कम जर्फी तो हिजरत करा देती है लोगों की तरह
ये मेरे इश्क की आरज़ू थी वरना
कब से हम क़ातिल ठहरा दिए होते गैरो की तरह
और मेरी हिजरत यूं ही नहीं बे माअना
तेरे ज़ख़्म अब भी पेवसत है कांटों की तरह...
में भी शर्मसार हूं गुनाह पर अपने
कभी तु भी तो नादिम ओ पशेमान हो मेरी तरह
ये मेरा जर्फ है के तुम अब भी हिस्सा ए महफिल हो
वरना कम जर्फी तो हिजरत करा देती है लोगों की तरह
ये मेरे इश्क की आरज़ू थी वरना
कब से हम क़ातिल ठहरा दिए होते गैरो की तरह
और मेरी हिजरत यूं ही नहीं बे माअना
तेरे ज़ख़्म अब भी पेवसत है कांटों की तरह...