हर दिन इक नई ख़बर आतीं हैं
हर दिन इक नई ख़बर आतीं हैं
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आती है
क्या कहना उन दिलों का जिनमें जज़्बात नहीं
मैं जानता नहीं इनके दिल में ये ख्वाहिश कैसे उतर आतीं हैं
जो समझ बैठें इनको बोझ
मुझे इनकी आंखों में धूल नज़र आतीं हैं
देखो मुकाम और पढ़ो वजूद की कहानियां इनकी
ये नारी हर बंदिशों को तोड़कर हर रूतबे पर नज़र आतीं हैं
लेकिन वक्त अभी भी बदला नहीं
हर दिन इक नई खबर आतीं हैं
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आतीं हैं
मार देते हो कोख में उसको
तुम फ़िर अच्छा फल पाने की हसरत रखतें हो
पूजने जातें हो देवी माँ को तुम मंदिर में
और उसी माँ की संतान के लिए नफरत रखतें हो
हैं तु इंसान कोई भगवान नहीं
उस नन्हीं सी जान नन्हीं सी बच्ची का जीवन ना लो तुम
इंसानियत के वजूद को ज़रा सा अपनालो तुम
अगर जीवन दे भी दिया उस नारी को
तो बंदिशें ज़माना हज़ार लगा देता हैं
गलत अगर नहीं भी वो
फ़िर भी ज़माना तोहमतें बेकार लगा देता हैं
अख़बार उठता हैं और आंखें सबकी झुकी नज़र आतीं हैं
हर दिन इक नई ख़बर आतीं हैं
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आतीं हैं
मैं अपने जज्बातों को जितना लिख पाया उतना लिख पाया
जो दिल से समझें अल्फाजों को उसके लिए दो लफ्ज़ भी काफ़ी हैं
और जिनकी आंखों में धूल और दिल में जंग हैं
उनके लिए तो एक किताब भी नाकाफी हैं
चिंगारी उठ चुकीं बस हवा लगना बाकी हैं
मुझे इंतज़ार वक्त के बदलने का
बस तुम्हारी इस बेकार सोच का ख़ाक होना बाकी हैं
-उत्सव कुलदीप
© utsav kuldeep
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आती है
क्या कहना उन दिलों का जिनमें जज़्बात नहीं
मैं जानता नहीं इनके दिल में ये ख्वाहिश कैसे उतर आतीं हैं
जो समझ बैठें इनको बोझ
मुझे इनकी आंखों में धूल नज़र आतीं हैं
देखो मुकाम और पढ़ो वजूद की कहानियां इनकी
ये नारी हर बंदिशों को तोड़कर हर रूतबे पर नज़र आतीं हैं
लेकिन वक्त अभी भी बदला नहीं
हर दिन इक नई खबर आतीं हैं
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आतीं हैं
मार देते हो कोख में उसको
तुम फ़िर अच्छा फल पाने की हसरत रखतें हो
पूजने जातें हो देवी माँ को तुम मंदिर में
और उसी माँ की संतान के लिए नफरत रखतें हो
हैं तु इंसान कोई भगवान नहीं
उस नन्हीं सी जान नन्हीं सी बच्ची का जीवन ना लो तुम
इंसानियत के वजूद को ज़रा सा अपनालो तुम
अगर जीवन दे भी दिया उस नारी को
तो बंदिशें ज़माना हज़ार लगा देता हैं
गलत अगर नहीं भी वो
फ़िर भी ज़माना तोहमतें बेकार लगा देता हैं
अख़बार उठता हैं और आंखें सबकी झुकी नज़र आतीं हैं
हर दिन इक नई ख़बर आतीं हैं
कोई नन्हीं बच्ची सड़क पर लावारिस नज़र आतीं हैं
मैं अपने जज्बातों को जितना लिख पाया उतना लिख पाया
जो दिल से समझें अल्फाजों को उसके लिए दो लफ्ज़ भी काफ़ी हैं
और जिनकी आंखों में धूल और दिल में जंग हैं
उनके लिए तो एक किताब भी नाकाफी हैं
चिंगारी उठ चुकीं बस हवा लगना बाकी हैं
मुझे इंतज़ार वक्त के बदलने का
बस तुम्हारी इस बेकार सोच का ख़ाक होना बाकी हैं
-उत्सव कुलदीप
© utsav kuldeep