...

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रचना...
गुस्से का सारा छींका...मुझ पर वो फोड़ देते हैं,,
हाथ पकड़ूं मैं जरा सा...वो ऊंगली मरोड़ देते हैं!!

हर बार ही दिल मेरा वो...इस तरह से तोड़ देते है,,
जैसे कि चाय पीकर लोग... कुल्लड़ को फोड़ देते हैं !!

रिश्तों को आजकल सब..इस तरह से तोड़ देते हैं,,
गांठ रखते हैं संभाले...धागों को छोड़ देते हैं !!

अपने ही आजकल क्यों...अपनों को छोड़ देते हैं ,,
सहूलियत के हिसाब से ही...रिश्ते मरोड़ लेते हैं !!

कुछ गैर लोग घर में घुसकर...बातों को मोड़ देते हैं,,
नोंक-झोंक थी मीठी-मीठी... पर वो नींबू निचोड़ देते हैं !!

हमसफ़र बनाकर लाए थे...उसे रसोई में छोड़ देते हैं ,,
जैसे पंछी को वो पकड़कर...पिंजरे में छोड़ देते हैं !!

लाचार गरीबों की झोपड़ी... गुस्से में तोड़ देते हैं ,,
दौलतमंदों के‌ शामियाने जबकि...कानून तोड़ देते हैं !!

भिखारियों की पंक्ति लम्बी..भंडारा कम पड़ गया है,,
पैसों में बिकती है ज़हां थाली.. वहां झूठन भी छोड़ देते हैं !!

बहुत कुछ है क्या कहूं मैं... जितना लिखूं वो कम है ,,
विस्तार से लिख दिया तो.. लोग पढ़ना भी छोड़ देते हैं !!
~P.s