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एक अंतिम महाभारत
आज धर्म और अधर्म की खूब चर्चा है,
एक जेब़ में भूख, दूसरे में "बापू वाला पर्चा" है।

तन-मन उद्वेलित है, भुजाएं स्पंदित हैं।
इन उर्जा-विहीन शरीरों के आत्मसम्मान खंडित हैं।

ह्रदय एवं मस्तिष्क के बीच छिड़ा है, एक द्वंद्व।
संवेदनाओं की चर्चा अब कौन करे?
जब मानव की मानवता हीं पड़ चुकी है, मंद।

बदलाव की आशा रखना भी है, गुऩाह,
मैंने, तुमने, हम सबने हीं तो दे रखा है "उसे" पनाह।

तर्क और संवेदनाओं के बीच,
जीतता तो हमेशा तर्क हीं है।
शोषित और शोषक के बीच,
आख़िर क्या फ़र्क हीं है?
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