...

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ढलती हुई ज़िंदगी
ढलती हुई ज़िंदगी और पिघलती हुई बर्फ़
अपने ही ठिकाने से बेज़ार हो जाती है..

उम्र के इस अनचाहे पडा़व पर आकर,
फ़िर एक बार बचपन की तलबग़ार हो जाती है..

जिस आशियाने को अपनों के सपनों से सजाया था,
इक दिन उनकी ही नज़रों में गुनहगार हो जाती है..

ढल कर जिस्म फ़ना होते है, रूहें नहीं मरतीं,
वो नये जिस्म में जाने को तैयार हो जाती हैं..

हर लम्हा ढलती ज़िंदगी से तुम ग़मज़दा क्यूँ हो,
जितनी डूब जाती है, उतनी पार हो जाती है..
𝖘𝖍𝖆𝖐𝖙𝖎
© #socialsaintshakti