माघ मास : एक आत्मकथा
शीत खुश्क रूखा सूखा, मैं सदैव न ऐसा था,
मैं भी कोमल, रंग - बिरंगा कभी बसंत के जैसा था
प्रेम वियोग में जाने कितने मेघों को बरसाया है,
हो आषाढ़, भादो या पूस, सबने बस तरसाया है
एकांतवास से व्यथित होकर दिनकर जल्दी चला जाता है,
चांद को अब भी आस प्रेम की, वक्त से पहले आ जाता है
एक वक्त पर सावन थे जो मेरे प्रणय लोचन में,
हिम बन कर अब बरस रहे हैं...
मैं भी कोमल, रंग - बिरंगा कभी बसंत के जैसा था
प्रेम वियोग में जाने कितने मेघों को बरसाया है,
हो आषाढ़, भादो या पूस, सबने बस तरसाया है
एकांतवास से व्यथित होकर दिनकर जल्दी चला जाता है,
चांद को अब भी आस प्रेम की, वक्त से पहले आ जाता है
एक वक्त पर सावन थे जो मेरे प्रणय लोचन में,
हिम बन कर अब बरस रहे हैं...