...

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janmdiwas patra
आज फिर कलम लिए मैं अपनी मेज पे बैठा हूं,
खुली खिड़की से ना जाने क्यूं निहार रहा बाहर का नजारा,
कौन गुज़रा सड़क पे , नहीं किया गौर, कौन आरा जारा।
स्तब्ध सा हूं मैं या मेरी कलम है उदास, कुछ सुखा सा है एहसास
दिल है कुछ भारा। शायद तुम बिन नही है गुजारा,
,मेरा, फिर आ मिलूं तुमसे दुबारा, तय कर ये दूरी, इक पल में,
अभी मांगी मैने ये दुआ जब खिड़की से देखा इक टूटा तारा।
इक पल में वो सारी बातों को उन रातों को कैसे दूं भुला, इक सपने की तरह।
कुछ आदत सी हुई है तुम्हारी या बेखुदी बोलूं, तू ही बता,"मुझसे भला तू जाने मेरे को"
अब ये दूरी तुमसे कब तक रहेगी,
ये चुप्पी मुझसे अब और ना सहेगी।
घड़ी में बज रहें है रात के बारह, ओर तारीख बढ़ गई,
मेरी रूह में इक देवी सी रूह के जीवन की इक और वर्षगांठ सज गई।
© ojasviladha