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सपनों की किताब़ :ज़िन्दगी की अख़बार
नींदों से है जल्दी जागना, पर,,
आंखें ये सपने देखने को तैयार हैं।
रहना चाहतीं हैं कभी सुकून से भी ये चाहतें
पर हमेशा तो लगी रहती ख्वाहिशों की भरमार है।
न है चैन से बैठने का इरादा
न ख़्वाब पूरे करने का पागलपन सवार है।
कभी कभी उभरने लगतीं हैं,
ये पानी की लहरों जैसी....
कुछ है अनसुलझी हुई तो
कुछ के बारे में सोचना भी बेकार है।।
बेख़बर हूं ज़रूर पर इरादा मजबूत है
ये जानते हुए भी कि एक ही घर में
हज़ारों दरार है। ह
मकान है ये वाकई किसी का या
खड़ी सिर्फ इमारतों की दीवार है।।
दिल में कैद है अलग जूनून और
आंखों को किसी और का इन्तज़ार है।
लब़ है कि ख़ुलने का नाम नहीं ले रहे
पर लोग तो यहां सारे समझदार हैं।।
अरे वो क्या का ग़म समझेंगे
न जाने क्यूँ सब इतने होशियार हैं।।
मस्तिष्क में है भरी अनकही आकांक्षाएँ
पर मंज़िल से पहले करना सफ़र का दीदार है।
कोई किसी से अन्जाना नहीं पर
वक्त पर सबका अलग ही किरदार है।।
है ये कलयुग का अलग ज़माना
जहाँ लोगों को सिर्फ ज़रूरतों से प्यार है।
यूं तो जान से प्यारे ही हैं सब
फ़िर भी करना ख़ुद को ही रास्ता पार है।
है नहीं किसी का दुश्मन कोई
सब अपने इरादों के कलाकार हैं।
नाटक में है खुली किताबें
और रंगमंच के नीचे
हर घर में बन्द एक खुला अख़बार है।।
© Princess cutie