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prem
सोच रही हूं बनू मैं गीता , युगों युगों तक बोली जाऊ।
बनकर प्रेम पुनीता उसके ही रंग मे रंग जाऊ ।
या फिर सीता बनकर उसके संग वनों को जाऊ।
या वंशी बनकर कान्हा के अधरौ से लग जाऊ।
या बनकर ग्वालिन माधव संग रास रचाऊ।
सोच रही ,,,
बनकर यमुना की तट , श्याम चरण छू जाऊ ।
या मधुवन बनकर खुद में ,मोहन का रंग सजाऊ।
चंदन बनकर प्यारे के, मस्तक पे सज जाऊ।
या बनू राधिका ,मोहन के सम्पूर्ण वेदना को भेद जाऊ ।
और उसके अन्तश में ,अपनी एक छवि बसाऊ।
और श्याम सी शयामिल होकर , उसके आलिंगन में भर जाऊ ।
सोच रही ,,,,
© Sarthak writings
बनकर प्रेम पुनीता उसके ही रंग मे रंग जाऊ ।
या फिर सीता बनकर उसके संग वनों को जाऊ।
या वंशी बनकर कान्हा के अधरौ से लग जाऊ।
या बनकर ग्वालिन माधव संग रास रचाऊ।
सोच रही ,,,
बनकर यमुना की तट , श्याम चरण छू जाऊ ।
या मधुवन बनकर खुद में ,मोहन का रंग सजाऊ।
चंदन बनकर प्यारे के, मस्तक पे सज जाऊ।
या बनू राधिका ,मोहन के सम्पूर्ण वेदना को भेद जाऊ ।
और उसके अन्तश में ,अपनी एक छवि बसाऊ।
और श्याम सी शयामिल होकर , उसके आलिंगन में भर जाऊ ।
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