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तल्खियां
चोट शब्दो के न सह पाते, जिनका स्वाभिमान होता है।
वो घाव गहरी दे जाता है जो, शख्स बद्दजबान होता है।।

किसी और कि क्या बिसात, ऐसे रिश्ते बिगाड़ दे आकर।
रिश्ता तब बिगड़ता है जब, कोई अपना बेईमान होता है।।

दर्द तभी तक है जानता, जबतक खाल में होता है नाखून।
खाल से निकलते ही इसका, कट जाना असान होता है।।

फर्क बहोत पड़ता था तब, जब हम भी थे हिस्से उन्ही के।
बेफिक्री आ जाती है जब, अकेलेपन का गुमान होता है।।

बहोत बोलने वाला इंसा भी, जब गुमसुम सा रहने लगे।
उसके ज़ेहन में जरूर कोई, ज़ख्म का निशान होता है।।

बिना बात पर भी बेबाकी से, क्यों मुस्कुरा देता हूँ सुन लो।
भुलाकर तल्खियां अपनो के, कहाँ हँसना आसान होता है।।

©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २४/०४/२०२४)