...

5 views

उलझे जज़्बात मेरे
पढ़ती हूँ मेरे ही लिखे अल्फाज़ो को
और सोचती हूँ क्या ये वही शख्स है
जिसके लिए दिनरात एक किया करती थी

उसकी छोटी छोटी ख्वाहिशों के लिए
कभी कभी खुद से लड़ जाया करती थी

अब वो तंज कसता है मेरे गुस्सा होने पर
की क्या हो गया देर ही तो हुई है ,,

ऐसी भी क्या जरूरत थी मेरी,तुम्हें तो
बस अपने समय पर ही मैं चाहिए होता हूँ

और मैं कोई वजह नही बता पाती
गुस्से से सहमी रह जाती हूँ और खुद की नज़र में गिरती रहती हूँ

हर रोज जलील होती हूँ और हररोज
मारती हूँ अपनी ख्वाहिशों को जो उसने ही जगाई थी बरसों तक सोई हुई

अब जी चाहता है कोई ख़्वाहिश न रहे
जिंदा तो रहे हम पर कोई अब जिंदगी में न रहे....
© speechless words