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मंज़िल
मंज़िल की राहों में
कही धूप थी तो
कही अंधेरो का
साया था वापस
भी लौटता मैं
कैसे बहुत दूर
जो निकल आया
था दूर तक मंज़िल
दिखाई नही देती
खुद जिंदगी को
कहाँ ले आया था
सारी राहे बंद नज़र
आती थी जाने मैं
कहाँ चला आया था
गिरकर संभलना तो
आसान था
कही धूप थी तो
कही अंधेरो का
साया था वापस
भी लौटता मैं
कैसे बहुत दूर
जो निकल आया
था दूर तक मंज़िल
दिखाई नही देती
खुद जिंदगी को
कहाँ ले आया था
सारी राहे बंद नज़र
आती थी जाने मैं
कहाँ चला आया था
गिरकर संभलना तो
आसान था
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