...

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अनकही दास्तां,,,
क्या कहूं?
कहने को कुछ बाकी है क्या?
कितना कुछ कहना था तुमसे,
तुमने कभी सुनना चाहा क्या?

शुरुआत तो सपनों से हुई थी,
जहाँ उम्मीदों के फूल खिले थे,
पर ये ख्वाब शायद अधूरे थे,
या समाज की जंजीरों से घिरे थे।

"लड़की हो, घर सँभालो,"
ये बात जैसे कानों में गूँजती रही,,
हर ताने के साथ उसकी हिम्मत,
धीरे-धीरे टूटती रही,,

खाने में नमक कम हुआ तो इल्ज़ाम,
कोई बात हुई तो "तुम्हारे घर" का नाम,,
ससुराल में हमेशा से थी गुनहगार,
पढ़ी-लिखी होकर भी अनपढ़ का शिकार,,

पति भी तो "कमाने वाला" था,
उसकी हर बात का कायल,,
"चुप रहो, झुको, सह लो,"
उसके लिए ये ही था न्याय,,

दुनिया कहती है वो "सुनहरी सुहागन" है,
पर उसके...