कुछ अनकही ...
मां ! आपसे सीखा है, मैंने जिंदगी का ये सलीखा
अपने चाहतों को रौंध, दूसरों के लिए जीना
मां ! खुद तकलीफ में रहती हो
फिर भी सबकी कितनी परवाह करती हो
मां ! आपने बेटी से बहु फिर मां तक का
ये लंबा सफ़र तय करा है
कई सारे उतार चढाव जीवन में देखे है
तभी तो मुझे दुनियां के रंगों में ढलने को कहती हो
लेकिन दिमाग़ खुराफाती करना चाहता
मेरा मन भी अपनी मनमानी
अब क्या करू ? मैं हूं बहुत बचकानी
लिए समझ का समंदर,करती रहती नादानी
मुझमें अक्ल थोड़ी कम है
तभी तो उच्ची आवाज़ में बातें कर
आंखें आपकी कर देती नम हूं
पर सच कलेजा मेरा भी फटता है
जब आपके आंखों में आसूं व
चेहरे पर मायूसी दिखता है...
अपने चाहतों को रौंध, दूसरों के लिए जीना
मां ! खुद तकलीफ में रहती हो
फिर भी सबकी कितनी परवाह करती हो
मां ! आपने बेटी से बहु फिर मां तक का
ये लंबा सफ़र तय करा है
कई सारे उतार चढाव जीवन में देखे है
तभी तो मुझे दुनियां के रंगों में ढलने को कहती हो
लेकिन दिमाग़ खुराफाती करना चाहता
मेरा मन भी अपनी मनमानी
अब क्या करू ? मैं हूं बहुत बचकानी
लिए समझ का समंदर,करती रहती नादानी
मुझमें अक्ल थोड़ी कम है
तभी तो उच्ची आवाज़ में बातें कर
आंखें आपकी कर देती नम हूं
पर सच कलेजा मेरा भी फटता है
जब आपके आंखों में आसूं व
चेहरे पर मायूसी दिखता है...