...

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,,,जीवन का यथार्थ"
प्रभूजी,
जीवन के यथार्थ को मैंने सिर्फ़ इतना ही जाना,के...
ये जीवन परिवर्तनशील,
कुछ भी यहाँ स्थिर नहीं...
नित नयी परिस्थिति में, ढलता जीवन...
पल भर भी जिसमें चैन नहीं...
लुटाते चलो, कदम-कदम पर अपनी सौगातों को...तो भी,
प्रभु समर्पण के बिन,ऐसा जीवन.. सपनों में जैसे नैन नहीं...
भटकना ही भटकना लगा रहता अभिमान का...उम्र भर...
पल भर भी बैठने को जैसे..
किसी बड़े के ममतामयी आँचल का साया स्वीकार नहीं..
ओह! ये विडम्बना मानव मन की...
जो नहीं हैं...