...

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गुमनाम पीड़ा......
कुछ पीड़ाओं की किस्मत भी न
इतनी अधिक ख़राब होती है
उनको नहीं मिलते संगी कभी
अपने दर्द से स्वतंत्र होने को....

उन पीड़ाओं से दूर रहते हैं हर्फ़
वो नहीं उतारी जातीं पृष्ठों पर
क़लम से भी नाता नहीं होता
स्वर नहीं मिलते सुनाने को....

वो छिपी रहती हैं हृदय में
आख़िरी परत के निचले कोर पर
ओढ़ लेती हैं गर्म लिहाफ़ मुस्कुर्राहटों का
कोई नहीं आता उन्हें सताने को....

जब कभी कम होती है अभागिता
तब उनका साथ दे देती हैं आँखें
बुला लेती हैं पीड़ाओं को अपने पास
जीवनकाल में एक या दो बार को....

कभी गुमनाम अंधेरे में मुँह छिपा कर
कभी स्नानगृह में पानी के साथ
और बस फिर जाकर छिप जाती हैं
अगले जन्म में नयी बन जाने को....



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© shaifali....✒️