दशहरा
समक्ष आकार है काठ का, है अग्नि ज्वाला दिखा रहा
चहुँ ओर हैं दर्शनाभिलाषी, है वो अट्टहास लगा रहा
हाथ बाँध मुझे खड़ा किया,
और स्वयं को योद्धा बता रहा,
संहार करने लंकेश का,
है राम कलयुगी आ रहा
बिसरे रघुनाथ चित्त से तेरे,
मन में मुझे जगाया है,
विराट स्वरूप ये मेरा इतना,
तूने ही तो रचाया है
ना धर्म है तेरे कर्मों में,
ना मैं जलने को आतुर हूँ,
देख दशा...
चहुँ ओर हैं दर्शनाभिलाषी, है वो अट्टहास लगा रहा
हाथ बाँध मुझे खड़ा किया,
और स्वयं को योद्धा बता रहा,
संहार करने लंकेश का,
है राम कलयुगी आ रहा
बिसरे रघुनाथ चित्त से तेरे,
मन में मुझे जगाया है,
विराट स्वरूप ये मेरा इतना,
तूने ही तो रचाया है
ना धर्म है तेरे कर्मों में,
ना मैं जलने को आतुर हूँ,
देख दशा...