ग़ज़ल
थोड़ा सा आफ़ताब जैसा है
थोड़ा सा माहताब जैसा है
महकी-महकी सी हैं मेरी ग़ज़लें
उसका चेहरा गुलाब जैसा है
वो कोई भी नशा नहीं करता
फिर भी लगता शराब जैसा है
उसके साये का चाँदनी तेवर
रोशनी पर नक़ाब जैसा है
थोड़ा पढ़ने का मैं भी आदी हूँ
थोड़ा वो भी किताब जैसा है
ख़्वाब में वो लगे हक़ीक़त सा
और हक़ीक़त में ख़्वाब जैसा है
उसके नख़रे न पूछिये साहब
सच कहूँ तो नवाब जैसा है
© All Rights Reserved
थोड़ा सा माहताब जैसा है
महकी-महकी सी हैं मेरी ग़ज़लें
उसका चेहरा गुलाब जैसा है
वो कोई भी नशा नहीं करता
फिर भी लगता शराब जैसा है
उसके साये का चाँदनी तेवर
रोशनी पर नक़ाब जैसा है
थोड़ा पढ़ने का मैं भी आदी हूँ
थोड़ा वो भी किताब जैसा है
ख़्वाब में वो लगे हक़ीक़त सा
और हक़ीक़त में ख़्वाब जैसा है
उसके नख़रे न पूछिये साहब
सच कहूँ तो नवाब जैसा है
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