...

23 views

अंगूर की बेटी़
अंगूर की बेटी से मेरा प्यार,
रोज मनाता मैं त्यौहार
मान सम्मान,समाज में ओहदा
मेरा बड़ा था,
लत एक बुरी, मुझ पर,
अंगूर की बेटी के इश्क,
का रंग चढ़ा था,
जब भी पीकर घर जाता,
पत्नी को गुर्राते हुए,
दरवाजे पर पाता,
बूढ़ी माँ रोज चिल्लाती,
मत पी बेटा यह समझाती,
बच्चे बिलककर दूर भागते,
बेहोश -सा पड़ा मै,
मुझे झांकते,
नशे-नशे में कुछ नहीं खाता,
फिर पत्नी से लड़ जाता,
रोजाना का हाल यही था,
अंगूर की बेटी का जाल यही था,
कभी-कभी तो घर नहीं जाता,
रास्ते में कहीं छिपकर सो जाता,
सुबह जेब में पर्स नहीं पाता,
कर्जे पर कर्जा चढ़ा था,
फिर भी खर्चा करने में,
मैं बड़ा था,
माँ, पत्नी, बच्चे परेशान,
धीरे-धीरे विलुप्त होती मेरी पहचान,
फिर एक दिन पीकर घर पहुँचा,
पत्नी ने बडबडाते हुए दरवाजा खोला,
माँ ने देख मुंह फेरा,
एक पलग पर बेटी बैठी थी,
सामने से लड़खडा़ते हुए बेटा आया,
मैंने पूछा क्या हुआ बेटा,
वह बोला, मैं बड़ा होकर ,
आपकी तरह पीकर यू चलूँगा,
फिर पत्नी से लडूंगा,
यह सुन मेरी आंखें भर आई,
सारा नशा दूर पड़ा था,
जैसे मै असहाय खड़ा था,
बच्चे ने मेरी आँख खोल दी,
निर्मल मन से सच बात बोल दी,
जाकर माँ के चरणों पर सोया,
माफ कर दो माँ फफककर रोया,
करता हूँ वादा अब न पीऊंगां,
अंगूर की बेटी के बिना जीऊंगां।
(डी एस गुर्जर "देव")