...

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ख़ामोश लफ्ज़
जो सुन नहीं सकता है कभी कोई, हाँ वैसा कोई
दर्द-भरा शोर है ये
जिस अंधेरी रात की कभी सुबह ही ना हो, वैसी
कोई भोर है ये
अपने पीठ पर सारे जहान का ग़म बेवजह उठाए आती है, बिल्कुल ठीक वैसी ही
कोई चोर है ये
हाँ जो बोलती तो बहुत है,
चीखती है चिल्लाती है, मग़र
फिर भी कभी किसी के कानों तक पहुंच ही नहीं पाती है इसकी कोई चीख़
किसी बेज़ुबां लफ़्ज़ों की वैसी ही
कोई डोर है ये
हाँ ये ख़ामोशी है, ख़ामोशी....

जिसकी चुप्पियाँ किसी कब्रिस्तान की तरह है
जिसके बवंडर, आनेवाले किसी खौफनाक ...