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प्रेम से मुक्ति प्रेम के लिए
बात प्रेम की मत करो
वो यंत्र है शोषण का
उसमें खुद को ना डुबाओ
वो दरिया है दोहन का
एक गल हो गई मुझसे भी
बहकावे में जो आ गया
कुछ एक दार्शनिकों के
जो खुद तो सिंहासन रूढ़ थे
किसी निर्बल की आत्मा पर
और बाँट रहे थे ज्ञान वो
इस कम्बख्त शब्द प्रेम का
जब तुम किसी में बंध जाओ
खुद के बस से निकल जाओ
तब समझो वह प्रेम नहीं
बीच में रोडा है तुम्हारी मुक्ति का
प्रेम आत्मनिर्भर तुम्हे बनाता है
किसी पर निर्भर होने से बचाता है
इसलिए प्रेम तुम्हारे अंदर है
जो दरिया नहीं समंदर है
जिस दिन तुम उसमें डूब गए
खुद में ही तुम भूल गए
फिर ढूँढने पर जो मिलेगा
वही तुम्हारा प्रेम है
वही तुम्हारा साथी है
वही तुम्हारा यार है
और फिर तुम उसको इतना चाहो
जितना प्यास पानी को
दीवानों सा हाल बनाकर
उस पर ही तुम मर मिट जाओ
और तब तुम मुक्त हो पाओगे
इस आडंबरमयी प्रेम से......