...

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//मन//
ये मन भी है कितना अजीब सा,
कभी ये एक पल मे है हँसता, तो कभी बिना बात ही रो देता,
कभी ये बेचैन है रहता, तो कभी चंचल सा है इतराता,
कभी इसमें सौ इच्छाएं दफ़न हो जाती, तो कभी एक इच्छा पूरी ना होने पर ज़िद्द है
करता,
कभी ये खुले आसमां के नीचे बैठना चाहता, तो कभी ये एकान्त है चाहता,
कभी ये हज़ारो की भीड़ मे भी अकेला रहता, तो कभी अकेले मे भी है ये मुस्कुराता,
कभी ये ईश्वर की भक्ति चाहता, तो कभी बन परिंदा उड़ना है चाहता,
कभी ये जीवन का अनुभव समझाता, तो कभी बच्चा है बन जाता,
मन ही बांधे मन से मन की प्रीत, मन ही तोड़े है मन से मन की रीत,
ये मन भी है कितना अजीब सा, हर पल कुछ न कुछ नया है चाहता... ✍️
स्वरचित रचना by मोनिका पंचारिया✍️✍️
© मोनिका पंचारिया