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वह सागर मैं हूँ नाला
सागर है वह लहरे ऊँची उठती वहाँ
पर समेट लेता है अपने में सदा
अड्डा होता है विशाल स्थल उसका
सदा अनेकानेक प्राणियों का
नाला हूँ मैं अगल बगल के
उपयोगी बनते बहते जाता हूँ
कभी ना कभी कही न कही मुझे
उस सागर से जा मिलना है
सागर की तो मिट्टी होती है
सदा भीगी ही भीगी
नाले की तो गति अलग है
होती है मिट्टी उसकी
कभी भीगी कभी सूखी
प्रकृति के सुख दुख जैसी
सागर कोई और नही
साथी मेरे श्री रामस्वामी है
नाला मैं हूँ उनका हितैषी
नाम है काज वेंकटेश्वर राव
© Kushi2212