...

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विधवा...
ना चाहते हुए भी लिपट चुका था
आखिर मैने कहा ये लिबास चुना था

उस रोज बेरंग हवाओ सा खुद को देखा
मेने जीते जी मौत का मंजर देखा

अर्थी से उठ चिता पर वो जला था
फिर क्यों मेरी मौत का मातम हुआ था

नूर मेरे चेहरे का किसी बेजान कोने जा पड़ा
जब भीगी आंखों से धीरे धीरे काजल उतरा

फिर लब कली के जैसे बंद पड़े थे
खिलने का मौसम आने पर भी वो नाजाने एक कोने में क्यों शांत खड़े थे

आखिर में सबसे नाता तोड दिया फिर कान्हा से खुद को जोड़ लिया
फिर मीरा सा बन कान्हा को खुद को सौप दिया.....

puru Sharma