...

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" कंठ और वीणा "
तन तेरा वीणा और कंठ है तार,
दोनों ही छेडें सुर और संगीत अपार,
माँ सरस्वती की महिमा जिस पर अपरंपार,
वो कहलाए हंसवाहिनी, वरदायिनी
और होए जग में उसकी जय-जयकार !

जैसे मन से पाकर भाव रंग-बिरंगे,
कंठ लगाए गोते सुर-सागर में सरपटवार,
वैसे ही पाकर सरसराहट ऊँगलियों की खुद पर,
बदले है तार... सुरों के नित नए करवट हर बार !

कंठ और वीणा से निकले शब्द और सुर,
जब मिल जाएं आपस में एक बार,
तब उत्पन्न होता ह्रदयस्पर्शी व मनमोहक संगीत मधुर,
जो छेड़े सबके मन के तार !

सरस्वती विराजे कंठ में जिसके,
और होए सुशोभित वीणा कर में तो लागे श्रृंगार,
तन तेरा वीणा और कंठ है तार,
दोनों ही छेडें सुर और संगीत अपार !


© Shalini Mathur