...

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संन्यासी
गृहस्थ सन्यासी!!

है गीता का उपदेश निराला
श्री कृष्ण ने जो था बतलाया
कर्म ही पूजा कर्म ही भक्ति
पाता मानव कर्म से ही मुक्ति।

तन भले धन में किन्तु
रहता वो निरासक्त मन से ।

संबंध वो निभाता सारे किन्तु
रहता घिरा सिर्फ श्री हरि के बंधन में ।

भावनाएं उसे भले भटकाए
क्षण भर के लिए चाहे रुलाए किन्तु
अस्थायी प्रत्येक वस्तु यहां
रहता उसे ध्यान यह सदा अपने चित्त में ।।

चाहे वो पूजा करे ना करे
माने ना माने किसी देव को
लेकिन
फल की आशा से ऊपर होती उसकी हर परिभाषा!

और
प्रत्येक कर्म उसका
उसमे छुपी हर भावनाएं
समर्पित होती इस प्रकृति को !!

स्वत: हकदार हो जाता वो
उस वास्तविक अनंत सुख का,

कर्मयोगी बन जगमगा जाता
कितनो के ही जीवन को
वास्तविक सन्यासी कहलाता वो ।।
© IwriteWHATtheTruthIS