इश्क़ के मोती
इश्क़ लिखने के लिए इश्क़ होना भी बहुत ज़रूरी है साहब,,
ज़हर के घूंट का स्वाद बिना पिए कोई कैसे बताएगा बेमौत बर्बाद होना क्या होता है ।
इश्क़ हुआ था कुछ तो हमें भी अब मोहब्बत के नाम पे
रिश्ता निभाने की फीस अदा किए जा रहे है
कागज़ी दस्तावेज़ी इश्क़ पे मुकदमा रोज़ चलता है मेरे गुनाहों का, आराम किसे है यहां इश्क़ में
रोज़ लगती है अदालत रिश्तों पर, चलते है मुकदमे, तारीख दर तारीख, सवाल पे सवाल
देनी पड़ती है दलीलें बेगुनाही की हर रोज़..
लाज़मी नहीं फिर भी ये कि वो हर गुनाह की माफी दे कर बाइज्ज़त बरी कर दे
रिश्तों के कारागार में रिहाई कहां होती है साहब!!
रिश्तों की गहराई में उलझती चली हूं फिर मैं
यूं तो टूट के चूर होकर मिट्टी में मिल गई थी
इश्क़ ने फिर परवान चढ़कर उठाया है
सुनहरे पंख लगाकर नीले आसमां में उड़ने का ख्वाब दिखाया है
मोहब्बत की सज़ा का ज़ायका लेने
मैंने इस बार खुद ही खुद को इश्क़ के जुए में दांव पे लगाया है
तीन इक्के मेरी किस्मत की लकीरों में नहीं
अंत में हार की बर्बादी तय है जानते हुए भी मैंने फिर जोखिम उठाया है ।
खुद से बेखबर अनजान मैं पता भी नहीं चला कब हमराही से हमसफर बन गई तुम्हारी मैं..
ना कभी खोना चाहुं तुम्हें, न तुम्हें अपने पास रख पाऊं मैं
तुमसे शिकायतें करूं तो तुम्हारी गुनहगार बनती जाऊं मैं
तुम्हारी नाराज़गी की वजह अकेली ही कहलाती जाऊं मैं
कहना चाहुं बहुत कुछ पर कह नहीं पाऊं मैं
मन रहे बेचैन, सुन्न, जड़ अंखियों से पानी की घटा चुप्पी साधे बरसती जाए
रुखसत लेने का जब समय आए अधमरी सी होती जाऊं मैं
रोकना चाहुँ सिसकना चाहूँ साथ चलना चाहूं मगर बेबस सी मैं तुम्हें जाते हुए बस देखती जाऊं माथे पर शिकन तक ना आने दूं मैं..
तुम्हारे गुस्से के डर के मारे सहम सी जाऊं मैं...
ज़हर के घूंट का स्वाद बिना पिए कोई कैसे बताएगा बेमौत बर्बाद होना क्या होता है ।
इश्क़ हुआ था कुछ तो हमें भी अब मोहब्बत के नाम पे
रिश्ता निभाने की फीस अदा किए जा रहे है
कागज़ी दस्तावेज़ी इश्क़ पे मुकदमा रोज़ चलता है मेरे गुनाहों का, आराम किसे है यहां इश्क़ में
रोज़ लगती है अदालत रिश्तों पर, चलते है मुकदमे, तारीख दर तारीख, सवाल पे सवाल
देनी पड़ती है दलीलें बेगुनाही की हर रोज़..
लाज़मी नहीं फिर भी ये कि वो हर गुनाह की माफी दे कर बाइज्ज़त बरी कर दे
रिश्तों के कारागार में रिहाई कहां होती है साहब!!
रिश्तों की गहराई में उलझती चली हूं फिर मैं
यूं तो टूट के चूर होकर मिट्टी में मिल गई थी
इश्क़ ने फिर परवान चढ़कर उठाया है
सुनहरे पंख लगाकर नीले आसमां में उड़ने का ख्वाब दिखाया है
मोहब्बत की सज़ा का ज़ायका लेने
मैंने इस बार खुद ही खुद को इश्क़ के जुए में दांव पे लगाया है
तीन इक्के मेरी किस्मत की लकीरों में नहीं
अंत में हार की बर्बादी तय है जानते हुए भी मैंने फिर जोखिम उठाया है ।
खुद से बेखबर अनजान मैं पता भी नहीं चला कब हमराही से हमसफर बन गई तुम्हारी मैं..
ना कभी खोना चाहुं तुम्हें, न तुम्हें अपने पास रख पाऊं मैं
तुमसे शिकायतें करूं तो तुम्हारी गुनहगार बनती जाऊं मैं
तुम्हारी नाराज़गी की वजह अकेली ही कहलाती जाऊं मैं
कहना चाहुं बहुत कुछ पर कह नहीं पाऊं मैं
मन रहे बेचैन, सुन्न, जड़ अंखियों से पानी की घटा चुप्पी साधे बरसती जाए
रुखसत लेने का जब समय आए अधमरी सी होती जाऊं मैं
रोकना चाहुँ सिसकना चाहूँ साथ चलना चाहूं मगर बेबस सी मैं तुम्हें जाते हुए बस देखती जाऊं माथे पर शिकन तक ना आने दूं मैं..
तुम्हारे गुस्से के डर के मारे सहम सी जाऊं मैं...