...

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बेताल फुर्र
"धरती की कोख की भांति,
ऐसे संभाला है ख़ुद को की
जैसे मेरे वचन, अडिग!, अविचल !"
"ना भीतर की कंपन,
न वह अग्नि प्रज्जवलित करता पर्वत पाओ ,
तब होते तुम कैसे भू-तल ?,......"
"जो पृथ्वी तन का हो एक
कण, तत् अंतर्मन के कंपन को
क्या कुछ अल्प है पाते हम!
ज्वाला नहीं की मृत्यु दे
पर मन शांत नहीं कर पाते हम,
अन्यथा मृत हो कर मिट्टी धन्य,
इन आधारभूत संतुलन से
धरा समतुल्य हो जाते हम।"

(विक्रमार्क का उत्तर पाते ही बेताल फुर्र)

© Prachi Sharma
2023