...

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माँ भूख लगी है
जेठ की दोपहरिया में तप रही थी धरती।
तप रहा था बदन भी
इकट्ठा करने को अन्न का दाना
इस लू की चपेट में।
नहीं जल पाया था चूल्हा
सिसक रहे थे जिगर के टुकड़े चंद टूकड़ो की खातिर
नहीं बुझ पा रही थी अग्नि जो
जल रही थी उनके पेट में।
टकटकी लगाए गड़ी थी नज़रें
कभी आसमान के बादलों पर कभी
सूखे दरारों से भरी खेत में।
चहू दिशाओँ में थी मार मौसम की
पर मार गरीबी कि झेल रहे थे वो
जैसे काट रहे हो सजा किसी जेल में।
बेटी पूछ रही थी अम्मा रो रहा है मुन्ना
कैसे मिलेगा अनाज
न जाने कब लगेगी छौंक तेल में।
माँ ताक रही थी मिट्टी के बर्तन वाले वो खिलौने
जिसमें बच्चें पकाया करते थे भोजन
यूँ हीं खेल - खेल में।
अंत हो रहा था अब सब्र का भी
उम्मीद थी पिता पर जो गए थे कमाने
न जाने आएंगे वो कितनी देर में।
दिलासा देती रही माँ बच्चों को भूख मिटेगी पल भर में
देखना बहुत कुछ लाएंगे तेरे पिताजी
भरकर अपनी जेब में।
पर कोई बताया न था अब तक पत्नी और बच्चों को
बस भीड़ लगी थी नदी किनारे देखने उस पिता को
जिनका सिर्फ गमछा पड़ा था नदी किनारे रेत में।



#gareebi

© shalini ✍️