...

7 views

माँ भूख लगी है
जेठ की दोपहरिया में तप रही थी धरती।
तप रहा था बदन भी
इकट्ठा करने को अन्न का दाना
इस लू की चपेट में।
नहीं जल पाया था चूल्हा
सिसक रहे थे जिगर के टुकड़े चंद टूकड़ो की खातिर
नहीं बुझ पा रही थी अग्नि जो
जल रही थी उनके पेट में।
टकटकी लगाए गड़ी थी नज़रें
कभी आसमान के बादलों पर कभी
सूखे दरारों से भरी खेत में।
चहू दिशाओँ में थी मार मौसम की
पर मार गरीबी कि झेल रहे थे वो
जैसे काट...