...

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हम खुद को बुला कर लाते हैं...
आप कभी जब हम से,
मिलने भी आ जाते हैं।
हम भी खुद को कहीं से,
जबरन बुला कर लाते हैं।

पराए कंधों पर ही जाती हैं,
सब अर्थियाँ श्मशानों तक।
रिवाज़ है सो अपनी अर्थी,
हम खुद ही उठा ले जाते हैं।

तुम मेरा हक हो ही नहीं,
इतना तो जान चुके हैं सो,
हम तेरे दयार से तन की,
गठरी उठा कर जाते हैं।

तुम लाख हमें समझाओ,
अभी समझना है ही नहीं।
आखिरी बाज़ी है बस फिर
सब कुछ गंवा कर आते हैं।

रात भी मुझसे उकता कर,
कहती है कोई लोरी सुना।
सब्र तो कर लो पहले हम,
खुद को सुला कर आते हैं।

हर दिन लाखों लोग यहां,
मौत के दर तक जाते हैं।
यूं खुदा दर नही खोलेगा,
अब हम खुलवाने जाते हैं।

रात है काली और लंबी भी,
यूं कटना काफ़ी मुश्किल है।
गीत,ग़ज़ल से रोशन है वो,
छगन को बुला कर लाते हैं।

छगन जेरठी
© छगन सिंह जेरठी