...

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आवारा हूं
आवारा हूं,
इस नकली सभ्यता में,
जहां अमीरों का शौक भारी है
गरीबों की जरूरतें हल्की,
जहां नर नारी ना एक समान।
हाँ, मैं आवारा ही ठीक हूं।

अकेला हूं
इस दिखावटी भीड़ भाड़ में,
जहां इंसान परछाईं है
अंधकार में तुम कौन - मैं कौन,
जहां पग - पग पर खने हैं गड्ढे।
हाँ, मैं अकेला ही ठीक हूं।

शांत हूं
इस बेतुके शोर में,
जहां झूठ है बिकता हाथों - हाथ
सच की नहीं कोई पूछ,
जहां दब जाती कमज़ोर की आवाज़।
हाँ, मैं शांत ही ठीक हूं।

ठहरा हुआ हूं
इस बेवजह की दौड़ में,
जहां खो जाता है सुख - चैन
खो जाती है अच्छाई,
जहां सही - गलत में नहीं कोई फर्क।
हाँ, मैं ठहरा हुआ ही ठीक हूं।
हाँ, मैं आवारा ही ठीक हूं।