...

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ज़िंदगी.....
जिंदगी ढुंढने की तलाश में, फिरती रही बंजारों की तरह,
ज़िंदगी ने कहा कंभख्त मुझ में ही सफ़र है,
मुझ जैसा कोई न हमसफर है,
मुझ से ही प्रारंभ है, मुझ से ही अंत है,
मुझ से ही खुशी है, मुझ से ही गम है,
मुझ से ही आबादी है, मुझ से ही बर्बादी है,
मुझ में ही इश्क़ है, मुझ में ही बेवफाई है,
मुझ में ही ईश्वर है, मुझ में ही विकार है,
एक इस तरह का मेरा आकार है,
मुझ से ही जीत है, मुझ से ही हार है,
मुझ में ही शराफत है,
मुझ में ही मयखाने है,
मुझ से ही हीफाज़त है, मुझ से ही सौदे है,
मुझ से ही कतीलाना है, मुझ से ही धोख़ा है,
मुझ में ही अमृत है,
मुझ में ही विष है,
मुझ से ही फायदा है,
मुझ से ही कस है,
इतना सब आजमाने के बाद ज़िंदगी बोली,
मत कर इतनी उम्मीद मुझसे ए- शायर,
आखिर मैं ज़िंदगी हूं,
मुझ से ही मौत है........

© Kashish Chandnani