...

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🌛 चांद और मैं 🌜

सांझ जब कुछ
गहराती है और
रातका एक पहर
गुजर जाता है
अक्सर मेरे कमरे में
चांद उतर आता है

वो मौजूद रहता
तो है आसमानों में
पर उसका अक्स
मेरे कमरे में उतर
आता है
मैं बत्तियां बुझा
देता हूं
उसके तसव्वुर में
और अंधेरे में ..
चांदनी का एक
गलीचा सा बिखर
जाता है
सांझ जब गहराती है
और एक पहर गुजर
जाता है
अक्सर....

शायद वह भी
तन्हाई को अपना
हमसफ़र पाता है
और सब भले
बिसरा दे, पर वह
वादा निभाता है
मुकर्रर वक्त पर
मिलने चला आता है
सांझ जब गहराती है
और एक पहर गुजर
जाता है
अक्सर....

जैसे कोई अपना
बिछडा मुद्दतो
बाद मिले
दिल को कुछ ऐसा
सुकून आता है
जाने उससे क्या
लगाव है ?
जाने उससे क्या
नाता है ?
सांझ जब कुछ
गहराती है और
रातका एक पहर
गुजर जाता है
अक्सर ....

बाहर अबअंधेरा कुछ
और गहराता है
मेरे कमरे में चांदनी
का गलीचा
पसरता सा जाता है
मैं हतप्रभ सा
तकता रहता हूं
वो मंद मंद
मुस्कुराता है
फिर अपने दिल
की बातें वो मुझसे
बतियाता है
सांझ जब गहराती है
और एक पहर गुजर
जाता है
अक्सर....

बातों का सिलसिला
अनविरत चलता जाता है
जाने वक्त कैसे
'पल 'भर में गुजर जाता है
आंखों को मेरी
नींद से बोझिल पाता है
उसका भी लौटने का
वक्त हो आता है
पल भर में गलीचा
सिमट सा जाता है
अगले दिन फिर
मिलने का
वादा पाता है
चांद फिर अपने
घर जाता है
चांद फिर अपने
घर जाता है ।।

स्वरचित , ॐ साईं राम ३०.११.२०२०
© aum 'sai'