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ऐसे बरसी सावन,,,
ऐसे बरसी सावन,
जैसे सदी के बाद लौटी हों पीहर में,
और मिलना चाह रही, हर एक से अपने शहर में।
अपनी काली घटा को लहराते हुए,
मदमस्त होकर मुस्कुराते हुए।
बताते हुए हर दिन का हाल,
खबर लेती अपनी पीहर के प्रत्येक का,
और रो डालती हैं,सुनकर यह प्रवासकाल।
फिर हल्की हल्की फुहार से तेज़ी से तेज हो जाती हैं।
प्रहसन से विमुक्त, अमर्ष (क्रोध) से अचानक रोती सी हो जाती हैं।
ऐसे बरसी सावन,
जैसे सदी के बाद लौटी हों पीहर में,
और कर रही सवाल क्यों भेज दी गई दूसरे शहर में,
क्रोध में आंधी तूफान साथ लिए,
चंचला की गर्जना साथ लिए,
बूंद बूंद से अभिव्यक्त कर रही ।
अपने विरह काल के झलक को,
छुपाती दु: ख से भीगे पलक को,
ऐसे बरसी मेघा रानी,
जोर जोर से थिरकती करताल  संग,
जैसे उफान में हो उर्मि (लहर) के अंतरंग।
फिर भी समझा जाती हैं खुद को,सभी का भीगा सा  हाल देख।
फिर थम जाती हैं,विवशता देख ,व्यथा देख।
अंततः  हल्की हल्की फुहार से सभी का मन करती हरियाली ।
आत्मजा बन शहर की,बिदाई की बेला खुद को सम्हालती दूसरे शहर वाली।
आशा और संस्कार लिए, नम आंखो में प्यार लिए।
अपना पीहर साथ ले जाती,वापसी का वादा किए।
सावन काल की,मेघा रानी,जी बरसी ऐसे।.
               सुरभि शावि  ताम्रकार।