...

3 views

अन्तर्द्वंद!
एक युद्ध जो अक्सर हमें लड़ना होता है
विध्वंस के लिए नहीं
अपितु सृजन हेतु ।
हाँ कोलाहल के लिए नहीं
किन्तु शाँति स्थापना के लिए।
ये बाहर नहीं बल्कि मनुष्य के ही अंदर होता है ।
मेरे लिए
जब कभी भारी पड़ती है मेरी नकारात्मकता
तब-तब युद्ध करती हूँ अन्तर्मन से।
अपने उस अक्ष से जो
अविश्वास करता है मुझ पर ,
मेरी क्षमताओं पर ।
अपने संशयों से , बुराईयों से
जो यदा-कदा घेर लेती है मुझको मुझमें ।
जब बुद्धि क्षीण हो जाती है,
परिस्थितियाँ विवेक हर लेती है
सूर्योदय भी सांयकाल नजर आता है
तब-तब ये अनिवार्य हो जाता है
अपने अस्तित्व को फिर पाने हेतु ,
जीवन के संघर्ष में फिर जुड़ जाने हेतु ।
हाँ वही ,
जो मैं खुद को खुद के लिए ही
साबित करने को लड़ती हूँ ।
जिसकी ज्वाला मुझे चलने का कारण देती है ,
जो मुझे अकेलेपन से एकांतता में ला देती है ,
हाँ वो मुझे खुद पे विश्वास करने योग्य बनाती है
और पर्याप्त बनाती है अपने लिए।
~दिव्य दीप