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गज़ल-आखिर
दिल में मेरे वो बस गया आखिर,
जोर दिल पे नहीं चला आखिर।
मैं शराफत पे था फिदा उसके,
चाल अपनी वो चल गया आखिर।
है सिला बस यही मुहब्बत का,
मैं भी तन्हा इधर रहा आखिर।
वो समुंदर मेरे हवाले था,
फिर भी प्यासा ही रह गया आखिर।
देखना बारहा यूं मुड़ मुड़ कर,
कुछ तो उसके भी दिल में था आखिर।
रोज ख़्वाहिश नई है दिल करता,
अब ख़ुदा भी करे तो क्या आखिर।
© शैलशायरी
जोर दिल पे नहीं चला आखिर।
मैं शराफत पे था फिदा उसके,
चाल अपनी वो चल गया आखिर।
है सिला बस यही मुहब्बत का,
मैं भी तन्हा इधर रहा आखिर।
वो समुंदर मेरे हवाले था,
फिर भी प्यासा ही रह गया आखिर।
देखना बारहा यूं मुड़ मुड़ कर,
कुछ तो उसके भी दिल में था आखिर।
रोज ख़्वाहिश नई है दिल करता,
अब ख़ुदा भी करे तो क्या आखिर।
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