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दास्तान ए ख़ाक
उलझे हुए ख़यालों को सुलझाना नहीं आया
ये ज़िंदगी रूठी रही, मनाना नहीं आया

चुन-चुन कर बिछा दिए फ़ूल उनकी राह में
ख़ुद की राह से कांटों को हटाना नहीं आया
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