...

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मेरी आदत
आती नहीं चालाकियां मुझे जमाने की,
बस एक बुरी आदत है मुझे मुस्कुराने की.
समझना है जिसे जो वो समझता रहे अब,
मुझे फुरसत नहीं किसी को कुछ बताने की.
मैं कैसी हूॅं मेरे शब्द बंया कर देते हैं दास्तान,
मेरी फितरत नहीं बन कर सामने आने की.
मुझे मिला है तजुर्बा वक्त की मेहरबानी से,
भुला नहीं सकती कोशिश करूं भुलाने की.
"भानु"रूठती है खुद से खुद ही मान जाती है,
अब आरजू रही नहीं किसी के नाज़ उठाने की.