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'मन' की ग़ज़ल
जाने कैसे हमारी वफ़ा बेवफ़ाई हों गईं
इल्जाम लगा करके बेवफ़ाई छुपा गए
वो दर्द देते गए हम है हंस कर लेते रहे
यू तमाम उम्र हम मोहब्बत निभाते गए
आंखों में लौट कर वो मंजर आ जाते
तेरे बेरुखी के पल खंजर बन चुभते है
अच्छा हुआ चाहत को दफ़न कर दिया
अब क्या मोहब्बत क्या नफरत रखें हम
इल्जाम लगा करके बेवफ़ाई छुपा गए
वो दर्द देते गए हम है हंस कर लेते रहे
यू तमाम उम्र हम मोहब्बत निभाते गए
आंखों में लौट कर वो मंजर आ जाते
तेरे बेरुखी के पल खंजर बन चुभते है
अच्छा हुआ चाहत को दफ़न कर दिया
अब क्या मोहब्बत क्या नफरत रखें हम
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