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एक वक्त का सपना
#सपनेऔरदुःस्वप्न
किसी के साथ की बड़े शिद्दत से ख्वाहिश थी ,
शायद कुदरत की हमपे आजमाइश थी ।
सोचा थामेंगे एक शक्श का हाथ हम ताउम्र के लिए,
पर वो शक्श भी न मिला हमे असलियत के दो पल के लिए ।।

फिर लगा खुद का एक जहां बसाएंगे,
सिर्फ यांदो के सहारे अपना घर बनाएंगे ।
शामिल करेंगे हर उस शक्श को जो पीछे छूट गए या छोड़ दिए गए ,
सबके साथ होकर भी एक साथी दूढना ,
इस अंजाम तक मुझे लाने में हिस्सेदारी थी जो सबकी।।

आगे एक दौर आया जज्बातों को सही गलत साबित करने का ,
इस भवर में उलझ खुद ही रो बैठे खुद को ही को बैठे ।
वक्त भी न लगा बारी -बारी सब कुछ बिखरने में,
एक तमाशा बना जब हम चुभते हुए टुकड़ों में मरहम तलाशने लगे ,
कुछ इस तरह अपना तमाशा बनाने में हमारी भी भागेदारी थी ।।

जब तक खुद को संभाल पाते रिश्तों ने psychiatry के अलग ही रास्ते में उलझा दिया ,
बस किसी तरह खुद को समेटने की कोशिश में समझौता कर बैठे ।
समझौता खुद के जज्बातों का ,
समझौता खुद के मान का अभिमान का ।।

अब न रास्ते वहीं थे न मंजिल और न ही उनकी प्यास,
जिंदगी में जो कुछ भी बनना था उसके हम मरीज साबित हुए।
जिससे नाम था मेरा पहचान थी मेरी,
अब सब एक वक्त की गर्द में को सा गया।।

और अब एक टूटी हुई इमारत को दोबारा खड़ा करना है,
पहले से भी बेहतर पहले से भी ऊंची ।
कुछ वक्त तो लगेगा कुछ मुकद्दर भी ,
न जाने अब किसका साथ मिलेगा और किसका साया भी ।।

जो वजह थे मंजिल के बिखरने की अब उनसे अपना आशियाना कैसे बनाऊं ।
कैसे समझाऊं उसे जो कुछ अंदर ही अंदर मुझसे रूठ कर पर एक शक्श की ख्वाहिश में लगा है ।।







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