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प्रेम विवाद
#चाँदसमुद्रसंवाद

समुद्र:—
सारा दिन दूरदेश रह विरह पीड़ में तड़पाते हो
विश्वव सभी को शीतल करके, मुझे ही क्यों यूं जलाते हो?
केवल छः पहर साथ रहके मन मेरा बहलाते हो
माना तुम्हारा फर्ज़ है ये,
पर मेरे प्रेम के प्रति अपना फर्ज़ क्यों न निभाते हो?

चंद्र:—
प्रिय! हृदय मेरी की बात ज़रा समझो
रोज़ सारा पहर चलते चलते
भले बहुत थक जाता हूं,
पर इंकार न करो इस बात मेरी से
भागते भागते, रोज़ रात्रि, केवल तुम्हे ही मिलने आता हूं।

समुद्र:—
इंकार नही करती, आहें हूं भरती
जानू मैं सबके प्रेम का कर्ज़ है तुमपे
पर मेरी तपस्या का कर्ज़ क्यों नही चुकाते हो?
दूरी इतनी के तुम तक पहुंच न स्कू,
और तुम हर सात दिन के बाद ही मुझे अपने गले लगाते हो।

चंद्र:—
कर्ज़ प्रेम का प्रेमी चुकाए
संदेह, प्रेम से दूर कराए
तपस्या फल हमारा स्नेह है
कितनी भी दूरी, इसे घटा न पाए
संघर्ष तुम्हारा मुझ तक पहौंचने का
मुझसे देखा न जाए
इसीलिए सात दिवस की प्रतीक्षा कर
विरह पीड़ भूल, तुम्हे भागू मैं गले लगाए।

समुद्र:—
सबकी नज़रे तुम्हे निहारती है
पर तुम सिर्फ़ मुझसे ही क्यों शर्माते हो?
सूर्य, भ्रामण्ड, तारे, सबकी सैर हो करते
पर मुझसे ही बस मिलने से कतराते हो।
पूरा विश्व भ्रमण करते हो रोज़
पर ये आंखें जो सिर्फ़ तुम्हे ढूंढे, उनसे ही इतराते हो।

चंद्र:—
खेलूं तुमसे हसी ठिठोली
तुम्हे लगता है मैं इतराता हूं
भले ही सूर्य, तारो की सैर हूं करता
पर सारा समय तुम्हारे इर्द गिर्द ही तोह मंडराता हूं
लाखों निगाहों से कभी कभी डर जाता हूं
कतराता नही, तब तुम्हे ही याद कर हिम्मत जगाता हूं
ये निगाहें तुम्हारी जीवन का सुक्कों हैं मेरा
शर्माता नही, इन्ही पे मर जाता हूं
तुमसे इतराऊ, ये हो नही सकता
पूरी पृथ्वी पे तुम हो समाई, तुम्हे संग अपने ले जाता हूं
जहां भी जाऊ, तुम्हे अपने साथ ही तोह पाता हूं

समुद्र:—
प्रेम तुम्हारा इतना अथाह है
इतनी गहराई मुझमें भी कहां है?
भूल हुई इतना संदेह किया,
ईर्षा को मन मेरा भेदने दिया।
चंद्रसमुद्र प्रेम ही मेरे जीवन की राह है
सच्चाई, शुद्धता, शालीनता इस प्रेम सी कहां है?
© मिलन